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ख़तरे में हैं

अरे नासमझ ! ये ना समझना तू, कि फक़त मेरी जान ख़तरे में हैं। आज सियासत की आब-ओ-हवा में, ये सारा हिंदुस्तान ख़तरे में हैं। सरहद पर मरता जवान, खेतों में हमारा किसान ख़तरे में हैं। कहीं किसी का घर ख़तरे में हैं, तो कहीं खेत खलियान ख़तरे में हैं। ये जो आज बढ़ती बेरोजगारी हैं, इससे हर एक नौजवान ख़तरे में हैं। दौलत की चकाचौंध ने कर दिया हमकों अंधा, पश्चिमी सभ्यता से हमारी संस्कृति, हमारी आन ख़तरे में हैं। कहीं बाढ़ में डूबता कोई स्थान ख़तरे में हैं, कहीं प्यास से मरता एक रेगिस्तान ख़तरे में हैं। कभी इज्ज़त की खाते थे हम रोटी, मग़र आज हमारा "स्वाभिमान" ख़तरे में हैं। इस गुलिस्तां-ए-मुल्क़ को संवारा है जिन्होंने, आज बुज़ुर्गाश्रमों में हमारा वो बागबान खतरे में हैं। चार अक्षर पढ़कर भी, गवार जब हम रह गए, हक़ीक़त पूछो तो अब ये शिक्षा, दिक्षा, ज्ञान ख़तरे में हैं। राह की ठोकरों से भी जब हमको अक्ल नही आयी, मेरी मानो तो अब इम्तिहान ख़तरे में हैं। जीवनदायिनी शज़र को जो काट रहे है ना हम, इस नासमझी भूल से सारा जहान ख़तरे में हैं। -✍️दिगम्बर रमेश हिंदुस्तानी🇮🇳