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Showing posts from May, 2019

क़ौमी एकता साधना

कभी तू आरती बन जाना मेरी, और हम भी तेरी अज़ान बन जाएँ। ग़र बात ग्रँथ की आये कहीं, तो तुम गीता पढ़ लेना मेरी, और हम भी तेरी क़ुरान पढ़ जाएँ। दिवाली में हिन्दू बन जाना तुम, ईद में हम मुसलमान बन जाएँ। बात पूजा की आये कहीं, तो मैं रहीम से करूँगा फ़रियाद, तेरी दुआ में भी मेरा राम आएँ। बात कौम कि कहीं आये, तो स्वामी विवेकानंद बन जाना तुम, हम भी डॉ कलाम बन जाएँ। चल छोड़कर बैर मजहबी, हम काम कुछ ऐसे करें, कि दुनिया में पहचान बन जाएँ। बात इंसानियत की आये कहीं, तो दोनों मज़हब छोड़ इंसान बन जाएँ। बात गर माटी की आये कहीं, तो चल मिलकर भारत महान बन जाएँ। -✍️दिगम्बर रमेश हिंदुस्तानी🇮🇳

तेरी कमीं

तेरी कमीं करें बेकरार मुझें।।२।। कहीं मिलता नहीं करार मुझें।।२।। तू सावन में, तू बादल में, तू बारिश में, तू अँचल में, तू लगें कोई सरकार मुझें।।२।। तेरी कमीं करें बेकरार मुझें।।२।। कहीं मिलता नहीं करार मुझें।।२।। मेरा दिल भी तू, मेरी धड़कन तू, मेरी साँसे तू, मेरी तड़पन तू, तू लगे हैं इक इंतजार मुझें।।२।। तेरी कमीं करें बेकरार मुझें।।२।। कहीं मिलता नहीं करार मुझें।।२।। तू विंध्याचल, हिमालय तू, मेरे दिल में एक महासागर तू, तू लगें है मेरा प्यार मुझें।।२।। तेरी कमीं करें बेकरार मुझें।।२।। कहीं मिलता नहीं करार मुझें।।२।। तेरी यादें हैं, तेरी बातें हैं, तेरे खयाल भी मुलाक़ातें हैं, तू लगें हैं कैदी फ़रार मुझें।।२।। तेरी कमीं करें बेकरार मुझें।।२।। कहीं मिलता नहीं करार मुझें।।२।। तू स्वीमिंग पुल, तेरी फ़ीलिंग फुल, तू जादूगर, तू बाज़ीगर, तू लगें कोई दरबार मुझें।।२।। तेरी कमीं करें बेकरार मुझें।।२।। कहीं मिलता नहीं करार मुझें।।२।। मेरा गीत भी तू, मेरा मीत भी तू, मेरा होश भी तू, मदहोश भी तू, तू सुरों की लगें झंकार मुझें।।२।। तेरी कमीं करें बेकरार मुझें।।२।।

दुआ मिल जाए

मैं ज़िंदा हूँ, बस इसी उम्मीद में अब तक, फ़िर कब कहाँ तुझसे नज़र मिल जाए। एक अरसा बीत गया, तुझसे मुलाकात हुए, हो सकता हैं अबकी बरस, तेरी ख़बर मिल जाए। कानों में पिघला सा काँच बनकर उतरती हैं अब सदाएँ तेरी, चाहत फक़त यही हैं, अब लबों की ख़ामोश जुबां मिल जाए। गूँजती हैं आवाजें मेरे ज़ेहन में, तेरी मोहब्बत की, गर इश्क़ ख़ता हैं, तो ताउम्र की मुझें सज़ा मिल जाए। ढूंढता हूँ, तेरे ग़म भुलाने की कोई दवा मिल जाए, या जिससे याद ना रहें तू, ऐसी कोई दुआ मिल जाए। मैं आग तो फ़िर लगा सकता हूँ, तेरे दिल में अपने प्यार की, मुझें तो बस तेरे दिल से, उड़ाता कहीं धुँआ मिल जाए। जो दिल के मकाँ से निकाल फेका हैं, बाहर तुमने, अब मैं दरबदर हूँ, कि मुझकों कहीं घर मिल जाए। आहिस्ता गुज़रती, अँधेरी रातों से भी गुजारिश हैं मेरी, रफ़्तार पकड़, ताकि मेरी ज़िंदगी को फिर नई सहर मिल जाए। अधूरी ख्वाइशों के दबने ने मर जाता हूँ हर रोज़, इससे तो बेहतर हैं कि मुझकों कहीं ज़हर मिल जाए। -✍️दिगम्बर रमेश हिंदुस्तानी🇮🇳