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Showing posts from May, 2020

जा रहें है वो

मेरी सदाक़त को ऐसे, झुठलाते जा रहे हैं वो, जैसे कि पानी में आग, लगाते जा रहें हैं वो। चलो इश्क़ मोहब्बत को दरकिनार कर दिया मैंने, मग़र जाने क्यों ? हक़ीक़त छुपाते जा रहे हैं वो। ये मेरी मोहब्बत तो, अंकुरित बीज है इश्क़ का, अनजाने में जिसे, मिट्टी में दबाते जा रहे हैं वो। देखना ! मैं छाऊँगा उनपर, एक दिन बादल बनकर, जिन घटाओं को आज, हटातें जा रहे हैं वो। वो कहानियां, वो क़िस्से भी, मुक़म्मल होंगे एक दिन, जो आज अधूरे ही लोगों को, सुनाते जा रहे हैं वो। वो दिल तो मैं कबका, उनके नाम कर चुका हूँ, जिसे मेरा दिल समझकर, दुःखाते जा रहे हैं वो। लगता है बेशुमार, नफ़रती दौलत हैं उनके पास, जो भर भरकर झोली मुझपऱ, लुटाते जा रहे हैं वो। मेरे दिल पर लिखा उनका नाम, पत्थर की लकीर है, जिसे मिटाने की नाक़ाम कोशिशे, आज़माते जा रहे हैं वो। अपने दिये ज़ख्मों को, उन्होंने देखा नहीं अभी तक ! शायद इसीलिए अब तक, मुसकुराते जा रहें हैं वो। मैं पहले ही क्या कम दीवाना था, उनका ? जो और अपना दीवाना, मुझकों बनाते जा रहे हैं वो। ✍️लेखक:- दिगम्बर रमेश हिन्दुस्तानी🇮🇳

देखकर

उसकी दिलकश आँखों को, इतना वीरान देखकर, मैं मात खा गया इश्क़ में, इंसान देखकर। कोशिश बहुत अच्छी थीं, मुक़म्मल ना सही, मैं क़ायल हो गया उसका, अपने क़त्ल का इंतजाम देखकर। मैं सौ-सौ बार, ख़ुद से ख़ुदकुशी कर लूँ, उसके इठलाते लबों पे, ऐसी मुस्कान देखकर। अब तो लगता हैं मुझकों, मैं हैरानी ने ना मर जाऊँ, कहीं आजकल ख़ुद में उसको ऐसे, हैरान देखकर। वो रोज़ाना दिल दुःखाते हैं मेरा, मग़र फ़िर भी ! मेरी आँखे चमक उठती हैं, फ़क़त उसका नाम देखकर। उसकी याद बहुत सताती हैं, दिन ढ़लते ही रोज़ाना, अंधेरी रातों में, वो तन्हा-सा चाँद देखकर। तरस नहीं आता उसको, बिल्कुल भी मुझपऱ, यूँ मेरी मोहब्बत को ग़मों से, लहूलुहान देखकर। ये ज़माना अब मुझकों, मुर्दा समझने लगा हैं, यूँ सारी दुनिया से मुझकों, अंजान देखकर। जब मोहब्बत की मैंने, तो ना-वाकिफ़ था मंसूबो से उसके, मग़र आजकल दहशत में हूँ, इश्क़ का ऐसा अंजाम देखकर। अब भरोसा नहीं होता, रब के अस्तित्व पर भी मुझकों, किसी भी मंदिर, मस्जिद, चर्च में भगवान देखकर। ✍️लेखक :- दिगम्बर रमेश हिंदुस्तानी🇮🇳

माँ की महत्ता

मैं अपनी "माँ" के लबों पे जो मुस्कान देखता हूँ, तो यूँ मानो कि खिलखिलाता सारा जहांन देखता हूँ। आसमां को सिर झुकाते देखा हैं "माँ" के क़दमो में, मैं हर घर में, एक ऐसा हिंदुस्तान देखता हूँ। "माँ" का दूध पीने वाले आज, शेर के बच्चे हैं, मैं उन सबमें उमड़ता एक, पहलवान देखता हूँ। जो भी अपनी "माँ" की परवरिश से रहा महरूम, मैं अक़्सर उसकों जीवन में नाक़ाम देखता हूँ। कामयाबी के शिखर पर अब तक वो ही चढ़े हैं, जिनके सिर-माथे "माँ" का वरदान देखता हूँ। सारी दुनिया की दौलत, जो अपनी "माँ' को समझते हैं, मैं तो फ़क़त उन्ही को, महान देखता हूँ। हर नारी को पूजता हैं, जो अपनी "माँ" की तरह, मैं ऐसे हर बशर में, एक मुक़म्मल इंसान देखता हूँ। एक मंदिर बनाने को जी चाहता हैं मेरा, मैं जहाँ भी "माँ" के क़दमो के निशान देखता हूँ। ✍️लेखक:- दिगम्बर रमेश हिन्दुस्तानी🇮🇳