दुआ मिल जाए

मैं ज़िंदा हूँ, बस इसी उम्मीद में अब तक,
फ़िर कब कहाँ तुझसे नज़र मिल जाए।

एक अरसा बीत गया, तुझसे मुलाकात हुए,
हो सकता हैं अबकी बरस, तेरी ख़बर मिल जाए।

कानों में पिघला सा काँच बनकर उतरती हैं अब सदाएँ तेरी,
चाहत फक़त यही हैं, अब लबों की ख़ामोश जुबां मिल जाए।

गूँजती हैं आवाजें मेरे ज़ेहन में, तेरी मोहब्बत की,
गर इश्क़ ख़ता हैं, तो ताउम्र की मुझें सज़ा मिल जाए।

ढूंढता हूँ, तेरे ग़म भुलाने की कोई दवा मिल जाए,
या जिससे याद ना रहें तू, ऐसी कोई दुआ मिल जाए।

मैं आग तो फ़िर लगा सकता हूँ, तेरे दिल में अपने प्यार की,
मुझें तो बस तेरे दिल से, उड़ाता कहीं धुँआ मिल जाए।

जो दिल के मकाँ से निकाल फेका हैं, बाहर तुमने,
अब मैं दरबदर हूँ, कि मुझकों कहीं घर मिल जाए।

आहिस्ता गुज़रती, अँधेरी रातों से भी गुजारिश हैं मेरी,
रफ़्तार पकड़, ताकि मेरी ज़िंदगी को फिर नई सहर मिल जाए।

अधूरी ख्वाइशों के दबने ने मर जाता हूँ हर रोज़,
इससे तो बेहतर हैं कि मुझकों कहीं ज़हर मिल जाए।

-✍️दिगम्बर रमेश हिंदुस्तानी🇮🇳

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