देखकर
उसकी दिलकश आँखों को, इतना वीरान देखकर,
मैं मात खा गया इश्क़ में, इंसान देखकर।
कोशिश बहुत अच्छी थीं, मुक़म्मल ना सही,
मैं क़ायल हो गया उसका, अपने क़त्ल का इंतजाम देखकर।
मैं सौ-सौ बार, ख़ुद से ख़ुदकुशी कर लूँ,
उसके इठलाते लबों पे, ऐसी मुस्कान देखकर।
अब तो लगता हैं मुझकों, मैं हैरानी ने ना मर जाऊँ,
कहीं आजकल ख़ुद में उसको ऐसे, हैरान देखकर।
वो रोज़ाना दिल दुःखाते हैं मेरा, मग़र फ़िर भी !
मेरी आँखे चमक उठती हैं, फ़क़त उसका नाम देखकर।
उसकी याद बहुत सताती हैं, दिन ढ़लते ही रोज़ाना,
अंधेरी रातों में, वो तन्हा-सा चाँद देखकर।
तरस नहीं आता उसको, बिल्कुल भी मुझपऱ,
यूँ मेरी मोहब्बत को ग़मों से, लहूलुहान देखकर।
ये ज़माना अब मुझकों, मुर्दा समझने लगा हैं,
यूँ सारी दुनिया से मुझकों, अंजान देखकर।
जब मोहब्बत की मैंने, तो ना-वाकिफ़ था मंसूबो से उसके,
मग़र आजकल दहशत में हूँ, इश्क़ का ऐसा अंजाम देखकर।
अब भरोसा नहीं होता, रब के अस्तित्व पर भी मुझकों,
किसी भी मंदिर, मस्जिद, चर्च में भगवान देखकर।
मैं मात खा गया इश्क़ में, इंसान देखकर।
कोशिश बहुत अच्छी थीं, मुक़म्मल ना सही,
मैं क़ायल हो गया उसका, अपने क़त्ल का इंतजाम देखकर।
मैं सौ-सौ बार, ख़ुद से ख़ुदकुशी कर लूँ,
उसके इठलाते लबों पे, ऐसी मुस्कान देखकर।
अब तो लगता हैं मुझकों, मैं हैरानी ने ना मर जाऊँ,
कहीं आजकल ख़ुद में उसको ऐसे, हैरान देखकर।
वो रोज़ाना दिल दुःखाते हैं मेरा, मग़र फ़िर भी !
मेरी आँखे चमक उठती हैं, फ़क़त उसका नाम देखकर।
उसकी याद बहुत सताती हैं, दिन ढ़लते ही रोज़ाना,
अंधेरी रातों में, वो तन्हा-सा चाँद देखकर।
तरस नहीं आता उसको, बिल्कुल भी मुझपऱ,
यूँ मेरी मोहब्बत को ग़मों से, लहूलुहान देखकर।
ये ज़माना अब मुझकों, मुर्दा समझने लगा हैं,
यूँ सारी दुनिया से मुझकों, अंजान देखकर।
जब मोहब्बत की मैंने, तो ना-वाकिफ़ था मंसूबो से उसके,
मग़र आजकल दहशत में हूँ, इश्क़ का ऐसा अंजाम देखकर।
अब भरोसा नहीं होता, रब के अस्तित्व पर भी मुझकों,
किसी भी मंदिर, मस्जिद, चर्च में भगवान देखकर।
✍️लेखक :- दिगम्बर रमेश हिंदुस्तानी🇮🇳
बेतरीन
ReplyDeleteभाई शुक्रिया
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