एकता का अकाल

देश में एकता का यहाँ पड़ा हैं अकाल,
जबसे आया हैं यहाँ जाति, धर्मों का भूचाल,

तरस गए हैं यहाँ हम आपसी भाईचारे को,
देखा हैं दिलों में सिर्फ़ नफ़रती आँगरो को,

इसलिए ही रुका हुआ हैं देश का विकास,
मेरें दिल में हैं, देश को बदलने की बुलन्दी ख़ास,

काश ना ये गीता औऱ ना कुरान होती,
ना कहीं आरती और ना कोई अज़ान होतीं,

मन्दिर और मस्जिदों के साये भी होते दूर,
ना लड़ने की वजहों से हम होतें भरपूर,

होता शांति का माहौल, एकता चारों ओर होती,
प्यार की बरसात, हर बात में हर बार होतीं,

ना कोई हिन्दू और न ही कोई मुसलमान होता,
जो होता इस जहाँन में वो हर शख्स इंसान होता,

आखिर क्यों भूल जाते हैं हम इंसानियत का पाठ,
यहाँ कुछ सियासत के लालची लोंगो की हैं साँठ गाँठ,

रखतें हैं ये सियासी, कुछ दरिंदे खरीदकर नोटों सें,
क्योंकि ये सियासी तो आदि हैं सिर्फ़ वोटों के,

दंगे कराना ही तो सियासी लोगों का काम हैं,
आज देश का दामन भी हद से ज़्यादा बदनाम हैं,

बढ़ा कर तो देखो हमारी ओर क़दम एक बार,
हम भी मिलेंगें खड़े तैयार, तुम्हारे लिए हर बार,

बदलना है समा देश का, बदलनी हैं देश की तक़दीर,
जब थामेंगे शिक्षा का दामन, तब बदलेगी देश की तस्वीर,

✍क़लमकार:-दिगम्बर रमेश हिन्दुस्तानी🇮🇳



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