इंक़लाब चाहता हूँ।

मैं इस अंधियारे ज़माने को देना आफ़ताब चाहता हूँ,
मैं कोई गुलाब नहीं, फक़त इंकलाब चाहता हूँ।

जो पाँचो बार सज़दे में इस धरा का मंगल माँगे, हर नमाज़ी से ऐसी नमाज़ चाहता हूँ,
बहुत हो लिये द्वंद देश में, अब मैं सबको साथ चाहता हूँ।

बहुत लूटा हैं मेरे देश को, इन लुटेरे नेताओं ने,
मग़र अब तो मैं हर इक चीज का, हिसाब चाहता हूँ।

हमारे सौहार्द्र, हमारी एकता, हमारी ईमानदारी की मिसालें दुनिया गाये,
मैं विश्व पटल पर ऐसा ख़िताब चाहता हूँ।

देखकर जिसको दुनिया सोच में पड़ जाये, मैं भारत ऐसा नायाब चाहता हूँ।
ये देश हमारा हीरा हैं, इस हीरे को तराशने में आपका साथ चाहता हूँ।

ये धरती एक दिन सोना उगलेगी, हर कृषक का ख़ुद में विश्वास चाहता हूँ।
ऐ मेरे मालिक ! ज़रा रहम कर दो, मैं तो बस सूखी ज़मी पे बरसात चाहता हूँ।

यहाँ आपने हर भरोसे पर झोली, भर भर के मोहब्बत लुटाई हैं,
मैं तो लौटाना उस मोहब्बत का, सिर्फ़ ब्याज़ चाहता हूँ।

बड़ी ज़ियाक्तिया हुई हैं, मेरे देश के लोगों पर,
मैं तो फक़त हर "हिंदुस्तानी" के साथ इंसाफ चाहता हूँ।

ख्वाईशें जियादा नहीं हैं मेरी, मैं हर संगदिल से मुक़म्मल मुलाक़ात चाहता हूँ,
घेरना चाहता हूँ मैं आपके दिलों पर कब्ज़ा, मैं आपके दिलों पे अपना राज़ चाहता हूँ।

-✍️दिगम्बर रमेश हिंदुस्तानी🇮🇳

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